Usne kaha tha लहना सिंह की प्रेम और कर्तव्य की अनमोल कहानी

Usne kaha tha जानें कैसे लहना सिंह ने अपनी बचपन की मोहब्बत के लिए जीवन का सर्वोच्च बलिदान दिया। प्रथम विश्व युद्ध, त्याग और अटूट प्रेम की यह हिंदी कहानी आपके दिल को छू जाएगी।

Usne kaha tha प्रेम, कर्तव्य और बलिदान की अमर हिंदी कहानी

आज भी जब अमृतसर के चौक से गुजरते हुए कोई ताँगा वाला बड़े-बड़े हरियाले बाँस के बगीचे का ज़िक्र करता है, तो बरबस लहना सिंह का चेहरा आँखों के सामने कौंध जाता है। वो लड़का, जिसकी ज़िंदगी का एक धागा बचपन में ही उलझ गया था, और उसी धागे ने उसे जीवन के अंतिम क्षणों तक एक अटूट वादे से बाँध कर रखा। उसने कहा था – ये सिर्फ तीन शब्द नहीं थे, बल्कि लहना सिंह के जीवन का महाकाव्य थे, जिसमें प्रेम, कर्तव्य और बलिदान की गाथा लिखी गई थी।

बचपन की निश्छल गलियाँ और एक भोला सा सवाल

बात आज से कई साल पहले की है, जब अमृतसर की गलियों में एक आठ साल की लड़की और एक बारह साल का लड़का अक्सर मिलते थे। लड़का, लहना सिंह, अपने मामा के घर आया हुआ था, और लड़की, जिसका नाम उस वक्त हज़ारा था, दही बेचने वाली अपनी माँ के साथ आई होती। उनकी मुलाकातें किसी तयशुदा जगह पर नहीं होती थीं, बल्कि कभी दुकान पर, कभी राह चलते। उनकी दोस्ती निश्छल थी, बिल्कुल उस वक्त की हवा की तरह जो गंगा की लहरों पर खेलती हुई आती थी।

एक दिन, लहना सिंह ने हमेशा की तरह, मुस्कुराते हुए हज़ारा से पूछा, तेरी कुड़माई हो गई? (तुम्हारी सगाई हो गई?) हज़ारा, जो अपनी छोटी-सी दुनिया में मस्त थी, शरमा कर सिर झुका लेती या पलट कर पूछती, धत्त! और भाग जाती। लहना सिंह को उसके इस भोले से जवाब में एक अजीब-सी खुशी मिलती थी। ये सिलसिला कुछ दिनों तक चला। कभी लहना सिंह उसे टोकरी उठाने में मदद करता, कभी रास्ता बताता, और हर बार वही सवाल, तेरी कुड़माई हो गई? और हर बार वही जवाब, धत्त!

एक दिन, जब लहना सिंह ने फिर वही सवाल दोहराया, तो हज़ारा ने अचानक पलट कर जवाब दिया, हाँ, हो गई। लहना सिंह अवाक रह गया। उसका चेहरा फीका पड़ गया। कब? उसने किसी तरह पूछने की हिम्मत की। कल, देखते नहीं ये रेशमी बूटों वाला दुप्पट्टा?”हज़ारा ने गर्व से अपनी ओढ़नी दिखाई। लहना सिंह का दिल जैसे कहीं टूट कर गिर गया। उसकी आँखों में एक अनकही उदासी छा गई। वो वहाँ से चला गया, रास्ते भर उसे कुछ भी ठीक नहीं लगा। उसने एक लड़के को गाली दी, एक खोमचे वाले को धक्का मारा, और एक कुत्ते को पत्थर मारा। उसके मन में एक अजीब-सा खालीपन आ गया था। चंद्रधर शर्मा गुलेरी  ने इस छोटे से प्रसंग में ही प्रेम की पहली टीस को इतने मार्मिक ढंग से उकेरा था। यह घटना उसके दिल की गहराइयों में कहीं बैठ गई। जयादा कहानियां पढ़ें

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वक्त का सफ़र और यादों का धुँधलापन

वक्त रेत की तरह हाथों से फिसलता गया। अमृतसर की वो गलियाँ, वो दही वाली हज़ारा, वो कुड़माई का सवाल – सब लहना सिंह की यादों में एक धुँधले चित्र की तरह कैद हो गए। लहना सिंह बड़ा हुआ। उसने सेना में भर्ती होकर देश की सेवा करने का फैसला किया। उसकी बहादुरी और लगन ने उसे जल्द ही एक अनुभवी सिपाही बना दिया। प्रथम विश्व युद्ध की घोषणा हुई और भारतीय सेना को भी मोर्चे पर भेजा जाने लगा। लहना सिंह अब राइफलमैन नंबर 77 था, एक निडर, कर्तव्यनिष्ठ सैनिक।

युद्धभूमि से पहले की एक अनूठी मुलाकात

लहना सिंह अपनी पलटन के साथ मोर्चे पर जाने की तैयारी कर रहा था। रास्ते में उनकी टुकड़ी को एक जगह ठहरना पड़ा। वहीं उसकी मुलाकात सूबेदार हजारा सिंह से हुई। हजारा सिंह एक अनुभवी सूबेदार थे और उनकी एक अलग ही पहचान थी। बातचीत के दौरान लहना सिंह को पता चला कि हजारा सिंह अमृतसर के पास के ही एक गाँव के रहने वाले थे। कुछ दिनों बाद, जब हजारा सिंह और लहना सिंह दोनों को छुट्टी मिली, तो हजारा सिंह ने लहना सिंह को अपने घर आने का न्योता दिया। लहना सिंह को खुशी हुई।

जब लहना सिंह सूबेदार के घर पहुँचा, तो उसकी आँखें वहाँ की सूबेदारनी पर ठहर गईं। एक पल के लिए उसे लगा जैसे वो इस चेहरे को जानता है, पर यादों पर धुंध छाई थी। सूबेदारनी भी उसे ऐसे देख रही थी जैसे उसे कुछ याद आ रहा हो। बातों-बातों में सूबेदारनी ने पूछा, क्या तुम्हें याद है, अमृतसर में एक बार ताँगे वाले ने तुम्हें कुचल दिया था और तुमने मुझे बचाया था? लहना सिंह को झटका लगा। उसकी आँखों में चमक आ गई। और तुमने मुझे पूछा था, तेरी कुड़माई हो गई? सूबेदारनी ने कहा। लहना सिंह के मुँह से अनायास ही निकला, धत्त!

हाँ, यह वही हज़ारा थी! उसकी बचपन की हज़ारा! लहना सिंह को विश्वास नहीं हुआ कि इतने सालों बाद उसकी मुलाकात उसी लड़की से होगी, जिसके साथ बचपन की कुछ यादें जुड़ी थीं। सूबेदारनी की आँखों में भी पुरानी यादों की चमक थी।

अटूट वादा: उसने कहा था…

सूबेदारनी ने लहना सिंह को खाने पर बुलाया। खाना खाते हुए सूबेदारनी अचानक गंभीर हो गईं। उन्होंने लहना सिंह से कहा, तुम जानते हो, यह मेरा पति है, सूबेदार हजारा सिंह, और यह मेरा इकलौता बेटा, बोधा सिंह। बोधा सिंह भी लहना सिंह की पलटन में ही था और अगले ही दिन उन्हें मोर्चे पर जाना था। सूबेदारनी की आवाज़ में एक अजीब-सी याचना थी। जैसे तुमने एक बार मेरी जान बचाई थी, वैसे ही आज मेरे इन दोनों की जान बचाना। ये मेरा बेटा है, मेरी जान है। इसे और सूबेदार जी को सुरक्षित वापस ले आना। मैंने उनसे कहा है कि तुम उनके साथ हो, इसलिए उन्हें चिंता नहीं है। बस, इतना ही उसने कहा था।

लहना सिंह के दिल में एक अजीब-सा कंपन हुआ। वो शब्द – उसने कहा था – उसके कानों में गूँज उठे। ये सिर्फ एक निवेदन नहीं था, बल्कि एक आदेश था, एक जिम्मेदारी थी, जो उसे अपने बचपन के प्रेम से मिली थी। उसके बचपन की हज़ारा, अब सूबेदारनी, ने उससे ये वादा लिया था। लहना सिंह ने बिना एक पल की देरी किए, अपनी पूरी निष्ठा और संकल्प के साथ कहा, जो हुक्म, सूबेदारनी जी! उसकी आँखों में एक अटूट निश्चय था। उस क्षण, लहना सिंह ने अपने जीवन का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण वादा कर लिया था। यह वादा उसके लिए अब सिर्फ एक फर्ज़ नहीं, बल्कि उसकी पहचान बन गया था। प्रेम कहानी  के इस मोड़ पर, प्रेम ने कर्तव्य का रूप ले लिया था।

युद्धभूमि का तांडव: कर्तव्य की अग्निपरीक्षा

अगले दिन, लहना सिंह और उसकी पलटन फ्रांस के मोर्चे पर पहुँची। प्रथम विश्व युद्ध अपने चरम पर था। बारूदी गंध, तोपों की गड़गड़ाहट और गोलियों की सनसनाहट हवा में घुल चुकी थी। ठंड हड्डियों तक जमने वाली थी, और बर्फीली हवाएँ सैनिकों के हौसलों को आज़मा रही थीं। लहना सिंह, हमेशा की तरह, अपनी पलटन में सबसे आगे था। बोधा सिंह उसके बगल में ही था, और सूबेदार हजारा सिंह कुछ दूरी पर कमांड दे रहे थे।

एक रात, दुश्मन की तरफ से अचानक हमला हुआ। जर्मन सैनिक अंधेरे का फायदा उठाकर उनकी खाई की ओर बढ़ रहे थे। लहना सिंह अपनी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के लिए जाना जाता था। उसने तुरंत स्थिति को भाँप लिया। बोधा सिंह बीमार था और उसे ठंड लग रही थी। लहना सिंह ने अपनी जर्सी उतार कर उसे पहना दी, भले ही वह खुद ठंड से काँप रहा था। उसने बोधा को अपनी बीमारी को छिपाने के लिए भी कहा, ताकि सूबेदार हजारा सिंह चिंतित न हों।

दुश्मन करीब आ गए। लहना सिंह ने अपने सैनिकों को तैयार रहने का संकेत दिया। एक जोरदार मुकाबला शुरू हो गया। गोलियों की बौछार, बमों का धमाका, और सैनिकों की चीखें – सब कुछ एक साथ गूँज रहा था। लहना सिंह ने अपनी राइफल से सटीक निशाने लगाए और कई जर्मन सैनिकों को मार गिराया। वह एक दीवार की तरह खड़ा था, अपने साथियों और सबसे बढ़कर, सूबेदारनी के वादे को पूरा करने के लिए। त्याग और बलिदान की यह भूमि थी।

लड़ाई भयंकर थी। एक क्षण के लिए जर्मन सैनिक भारी पड़ने लगे। लहना सिंह ने देखा कि सूबेदार हजारा सिंह पर सीधा हमला होने वाला है। बिना एक पल सोचे, वह बीच में कूद गया। एक गोली उसकी जाँघ में लगी। तेज दर्द हुआ, लेकिन लहना सिंह ने उसे नज़र अंदाज़ कर दिया। उसने तुरंत हमलावर जर्मन सैनिक को मार गिराया और सूबेदार को सुरक्षित कर लिया। हिंदी साहित्य की यह कहानी सैनिकों के शौर्य का अद्भुत चित्रण करती है।

खट्टे अंगूर

अंतिम साँसें: वादे की अमरता

लहना सिंह बुरी तरह घायल हो चुका था। खून तेजी से बह रहा था। उसके साथी उसे अस्पताल ले जाने की ज़िद करने लगे, लेकिन लहना सिंह ने मना कर दिया। मुझे कुछ नहीं हुआ है, उसने दर्द को छिपाते हुए कहा। पहले बोधा और सूबेदार जी को भेजो। बोधा सिंह अभी भी बीमार था और उसे प्राथमिक उपचार की सख्त ज़रूरत थी। लहना सिंह जानता था कि उसके पास ज्यादा समय नहीं बचा है। उसका एकमात्र ध्येय सूबेदारनी का वादा पूरा करना था।

उसने अपने दोस्त वजीरा सिंह को बुलाया। वजीरा, लहना सिंह ने धीमी आवाज़ में कहा, जब तुम सूबेदारनी के पास जाओ, तो उनसे कहना कि वजीरा सिंह को समझ नहीं आया कि लहना सिंह क्या कह रहा है, लेकिन उसने अपने दोस्त की आँखों में एक अजीब-सी शांति देखी। लहना सिंह को अपने बचपन की हज़ारा, रेशमी बूटों वाली ओढ़नी, और तेरी कुड़माई हो गई? का जवाब धत्त! सब याद आ रहा था। उसने देखा कि बोधा सिंह और सूबेदार हजारा सिंह को सुरक्षित अस्पताल ले जाया जा रहा है। उसके चेहरे पर एक संतोष भरी मुस्कान आ गई।

दर्द बढ़ता जा रहा था, लेकिन लहना सिंह की आँखों में कोई शिकायत नहीं थी। उसने अपनी अंतिम साँस ली, उस वादे को निभाते हुए जो Usne kaha tha उसके साथ किया था। उसका बलिदान सिर्फ एक सैनिक का नहीं था, बल्कि एक प्रेमी का था, जिसने अपने बचपन के प्रेम के लिए जीवन का सर्वोच्च न्योछावर कर दिया। कर्तव्य और बलिदान का ऐसा संगम शायद ही कहीं देखने को मिलता है।

अमर विरासत

लहना सिंह मर गया, लेकिन उसकी कहानी अमर हो गई। Usne kaha tha सिर्फ एक वाक्य नहीं, बल्कि प्रेम, कर्तव्य और त्याग के शाश्वत मूल्यों का प्रतीक बन गया। यह कहानी चंद्रधर शर्मागुलेरी की सबसे महत्वपूर्ण कृतियों में से एक है और हिंदी साहित्य की उन गिनी-चुनी कहानियों में से है जो आज भी पाठकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ती हैं। लहना सिंह ने अपने प्राणों की आहुति देकर न केवल देश की रक्षा की, बल्कि एक ऐसे वादे को भी पूरा किया जो उसके लिए उसके जीवन से भी बढ़कर था। उसकी शहादत हमेशा याद रखी जाएगी।